Sunday 9 August 2015

• सवाल 1. धर्म क्या है, और इसकी उत्पति कैसे हुयी ?

• सवाल 1. धर्म क्या है, और इसकी उत्पति कैसे हुयी ?
• सवाल 2. आप धर्म को क्यों मानते हो और जीवन मै इसका क्या महतव है ?
» जवाब: ● धर्म………
धर्म मौलिक मानवीय मूल्यों (अच्छे गुणों) से आगे की चीज़ है। अच्छे गुण (उदाहरणतः नेकी, अच्छाई, सच बोलना, झूठ से बचना, दूसरों की सहायता करना, ज़रूरतमन्दों के काम आना, दुखियों के दुःख बाँट लेना, निर्धनों निर्बलों से सहयोग करना आदि) हर व्यक्ति की प्रकृति का अभाज्य अंग है चाहे वह व्यक्ति किसी धर्म का अनुयायी हो,
या अधर्मी और नास्तिक। धर्म इन गुणों की शिक्षा तो देता है; इन्हें महत्व भी बहुत देता है तथा मनुष्यों और मानव-समाज में इनके प्रचलन, उन्नति व स्थापन पर पूरा ज़ोर भी देता है, परन्तु ये मानवीय गुण वह आधारशिला नहीं है जिन पर धर्म का भव्य भवन खड़ा होता है। – @[156344474474186:]
इसलिए धर्म के बारे में कोई निर्णायक नीति निश्चित करते समय बात उस बिन्दु से शुरू होनी बुद्धिसंगत है जो धर्म का मूल तत्व है। यहाँ यह बात भी स्पष्ट रहनी आवश्यक है कि संसार में अनेक मान्यताएँ ऐसी हैं जो ‘धर्म’ के अंतर्गत नहीं ‘मत’ के अंतर्गत आती हैं। इन दोनों के बीच जो अंतर है वह यह है कि ‘धर्म’ में ईश्वर को केन्द्रीय स्थान प्राप्त है और ‘मत’ में या तो ईश्वर की सिरे से कोई परिकल्पना ही नहीं होती; या वह ईश्वर-उदासीन (Agnostic) होता है, या ईश्वर का इन्कारी होता है। फिर भी ‘धर्म’ के अनुयायियों में भी और ‘मत’ के अनुयायियों में भी सभी मौलिक मानवीय गुण और मूल्य (Human Values) पाए जाते हैं।
● धर्म क्या है?…….
उपरोक्त परिप्रेक्ष्य में ‘धर्म’ विचारणीय वही है जो ‘ईश-केन्द्रित’ (God Centric) हो। इस ‘धर्म’ में ‘ईश्वर पर विश्वास’ करते ही कुछ और तत्संबंधित बातों पर विश्वास अवश्यंभावी हो जाता है;
जैसे: ईश्वर के, स्रष्टा, रचयिता, प्रभु, स्वामी, उपास्य, पूज्य होने पर विश्वास। इसके साथ ही उसके अनेक गुणों, शक्तियों व क्षमताओं पर
भी विश्वास आप से आप अनिवार्य हो जाता है। यहाँ से बात और आगे बढ़ती है। यह जानने के लिए कि ईश्वर की वास्तविकता क्या है; वह हम से अपनी पूजा-उपासना क्या और कैसे कराना चाहता है; हमारे लिए, हमारे जीवन संबंधी उसके आदेश (Instructions), आज्ञाएँ (Injuctions), नियम (Rules), पद्धति (Procedures), आयाम (Dimensions), सीमाएँ (Limits), उसके आज्ञापालन के तरीक़े (Methods) आदि; अर्थात् हमारे और ईश्वर के बीच घनिष्ठ संबंध की व्यापक रूपरेखा क्या हो; हमें उसकी ओर से एक आदेश-पत्र की आवश्यकता है जिसे ‘ईशग्रंथ’ कहा जाता है।
यहाँ से बात थोड़ी और आगे बढ़कर इस बात को अनिवार्य बना देती है कि फिर मनुष्य और ईश्वर के बीच कोई मानवीय आदर्श माध्यम भी हो (जिसे अलग-अलग भाषाओं में पैग़म्बर, नबी, रसूल, ऋषि, Prophet आदि कहा जाता है)। इसके साथ ही यह जानना भी आवश्यक है कि धर्म की ‘मूलधारणा’ क्या है उस मूलधारणा के अंतर्गत और कौन-कौन-सी, मौलिक स्तर की उपधारणाएँ आती हैं, तथा उस मूलधारणा और उसकी उपधारणाओं के मेल से वह कौन-सी परिधि बनती है जो धर्म की सीमाओं को निश्चित व निर्धारित करती है जिसके अन्दर रहकर मनुष्य ‘धर्म का अनुयायी’ रहता है तथा जिसका उल्लंघन करके ‘धर्म से बाहर’ चला जाता, विधर्मी हो जाता है। धर्म यदि वास्तव में ‘धर्म’ है, सत्य धर्म है, शाश्वत धर्म है, सर्वमान्य है, सर्वस्वीकार्य है तथा उसकी सुनिश्चित रूपरेखा व सीमा है तब उसे उस मानवजाति का धर्म होने का अधिकार प्राप्त होता है जो मात्र एक प्राणी, एक जीव ही नहीं, सृष्टि का श्रेष्ठतम अस्तित्व भी है।
● क्या सारे धर्म समान हैं?…..
इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले कुछ महत्वपूर्ण बातों का, विचाराधीन आना आवश्यक है: जब ईश्वर मात्र ‘एक’ है; हर जीव-निर्जीव की संरचना उस ‘एक’ ही ईश्वर ने की है, विशेषतः ‘मनुष्यों’ का रचयिता वही ‘एक’ ईश्वर है; यह सृष्टि और ब्रह्माण्ड (जिसका, मनुष्य एक भाग है) उसी ‘एक’ ईश्वर की शक्ति-सत्ता के अधीन है;
मनुष्यों की शारीरिक संरचना ‘एक’ जैसी है; वायुमंडल ‘एक’ है; बुराई, बदी की परिकल्पना भी सारे मनुष्यों में ‘एक’ है, और अच्छाई की परिकल्पना भी ‘एक’ ; सत्य ‘एक’ है जो नैसर्गिक व अपरिवर्तनशील है…..तो फिर धर्म ‘अनेक’ क्यों हों?
जब संसार और सृष्टि की बड़ी-बड़ी हक़ीक़तें, जिनका प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध मनुष्य से है, ‘एक’ ही ‘एक’ हैं तो फिर मनुष्यों के लिए धर्म का ‘अनेक’ होना न तार्किक है न बुद्धिसंगत। मस्तिष्क और चेतना इस ‘अनेकता’ को स्वीकार नहीं करती।
● ‘धर्म’ को कैसा होना चाहिए?……
मानव प्राणी चूँकि ‘शरीर’ और ‘आत्मा’ के समन्वय से अस्तित्व पाता है तथा उसके व्यक्तित्व में ये दोनों पहलू अविभाज्य (Inseparable) हैं; इसलिए धर्म ऐसा होना चाहिए जो उसके भौतिक व सांसारिक तथा आध्यात्मिक व नैतिक जीवन-क्षेत्रों में संतुलन व सामंजस्य के साथ अपनी भूमिका निभा सके। (इस्लाम के सिवाय अन्य) धर्मों तथा उनकी अनुयायी क़ौमों का इतिहास यह रहा है कि धर्म ने पूजा-पाठ, पूजास्थल, पूजागृह और कुछ सीमित धार्मिक रीतियों तक तो अपने अनुयायियों का साथ दिया, या ज़्यादा से ज़्यादा कुछ मानवीय मूल्यों और कुछ नैतिक गुणों की शिक्षा देकर कुछ चरित्र-निर्माण, और कुछ समाज-सेवा में अग्रसर कर दिया। इसके बाद, इससे आगे मानवजाति की विशाल, वृहद्, बहुआयामी, बहुपक्षीय, व्यापक जीवन-व्यवस्था में धर्म ने अपने अनुयायियों और अनुयायी क़ौमों का साथ छोड़ दिया। यही बात इस विडंबना का मूल कारण बन गई कि धर्म को व्यवस्था से, व्यवस्था को धर्म से बिल्कुल ही अलग, दूर कर दिया गया। यह अलगाव इतना प्रबल और भीषण रहा कि ‘धर्म’ और ‘व्यवस्था’ एक-दूसरे के प्रतिरोधी, प्रतिद्वंद्वी, शत्रु-समान बन गए।
अतः ‘व्यवस्था’ के संदर्भ में धर्म-विमुखता, धर्म-निस्पृहता, धर्म-उदासीनता यहाँ तक कि धर्म-शत्रुता पर भी आधारित एक ‘‘आधुनिक धर्म’’ ‘सेक्युलरिज़्म’ का आविष्कार करना पड़ा। इस नए ‘‘धर्म’’ ने पुकार-पुकार कर, ऊँचे स्वर में कहा कि (ईश्वरीय) धर्म को सामूहिक जीवन (राजनीति, न्यायपालिका, कार्यपालिका, प्रशासन, अर्थव्यवस्था, शैक्षणिक व्यवस्था आदि) से बाहर निकाल कर, वहाँ मात्रा इसी ‘‘नए धर्म’’ (सेक्युलरिज़्म) का अधिपत्य स्थापित होना चाहिए। इस प्रकार उपरोक्त धर्मों की अपनी सीमितताओं और कमज़ोरियों के परिणामस्वरूप मानव के अविभाज्य व्यक्तित्व को दो अलग-अलग हिस्सों में विभाजित कर दिया गया। ‘‘व्यक्तिगत पूजा-पाठ में तो ईश्वरवादी, धार्मिक रहना चाहो तो रहो, परन्तु इस दायरे से बाहर निकल कर सामूहिक व्यवस्था में क़दम रखने से पहले, ईश्वर और अपने धर्म को अपने घर में ही रख आओ’’ का मंत्र उपरोक्त ‘नए धर्म’ का ‘मूल-मंत्र’ बन गया।
मनुष्य के अविभाज्य व्यक्तित्व का यह विभाजन बड़ा अप्राकृतिक, अस्वाभाविक, बल्कि अत्याचारपूर्ण था, फिर भी ‘धर्म’ ने अपनी कमज़ोरियों और सीमितताओं के कारण इस नए क्रांतिकारी ‘‘धर्म’’ (सेक्युलरिज़्म) के आगे घुटने टेक दिए।
यह त्रासदी (Tragedy) इस वजह से घटित हुई कि धर्म, जो सामने था, ‘एक’ से ‘अनेक’ में टूट-बिखर चुका था, विषमताओं का शिकार
हो चुका था; जातियों, नस्लों, राष्ट्रीयताओं आदि में जकड़ा जा चुका था अतः अपनी नैसर्गिक विशेषताएँ व गुण (सक्षमता, सक्रियता, प्रभावशीलता, उपकारिता, कल्याणकारिता आदि) खो चुका था।
इस कारणवश उसे, ईश्वरीय धर्म को हटाकर उसकी जगह पर विराजमान हो जाने वाले ईश-उदासीन ‘नए क्रांतिकारी धर्म’ (सेक्युलरिज़्म) के आगे घुटने टेक देने ही थे। इसके बड़े घोर दुष्परिणाम मानव-जाति को झेलने पड़े और झेलने पड़ रहे हैं। उपद्रव, हिंसा, रक्तपात, शोषण, अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार, नशाख़ोरी, शराबनोशी, अपराध, युद्ध, बलात्कार, नरसंहार, भ्रष्टाचार, रिश्वत, लूट-पाट, डकैती, चोरी, ग़बन, घोटाले, अपहरण, नग्नता, अभद्रता, अश्लीलता, यौन-अपराध, हत्या आदि का एक सैलाब है जिस पर बाँधा जाने वाला हर बाँध टूट जाता है। इसे मरम्मत करने की जितनी कोशिशें की जाती हैं, उन्हें असफल बनाकर, यह सैलाब पहले से भी ज़्यादा तबाही मचाता, फैलता, आगे बढ़ता-चढ़ता चला जा रहा है। ….
● तो इस समस्या से छुटकारा पाने का उपाय क्या है ?? ….
निसन्देह ये ही न किदुनियाभर मे शांति और प्रेम का माहौल बने इसके लिए जरूरी है कि दुनिया के सभी व्यक्ति एक ही धार्मिक विचारधारा का अनुसरण करें…..
पवित्र कुरान मे सारे मनुष्यों का ईश्वर स्पष्ट रूप से बताता है कि “सारे मनुष्यों का धर्म एक ही था, बाद मे उनमें विभेद हुआ ” – (पवित्र कुरान 10:19)
• उसने तो सब मनुष्यों के लिए एक ही धर्म (इस्लाम) भेजा था, पर मनुष्यों ने ही उस धर्म मे नए नए अनाधिकृत आविष्कार कर के एक धर्म के कई टुकड़े कर के अलग अलग धर्म बना डाले….
• अब आप ही बातये – ‘क्या दुनिया मे शांति और सौहार्द बनाने के लिए ये आवश्यक नहीं कि सारे लोग एक धर्म इस्लाम पर सहमत हो जाएं जो वास्तव मे उन सभी का वास्तविक धर्म है ???’ …..

Musalman Ko Ek Jamat Se Judna Jaruri Hai ?

Musalman Ko Ek Jamat Se Judna Jaruri Hai ?
∗ Sawaal : Kya Musalman Ko Ek Jamat Se Judna Jaruri Hai ? » Jawaab: Haa! Ek Jamat Se Judna Jaruri Hai, Jis’se Muraad Musalmano Ki Jamaat Hai, Hadees Me Jo Jamat Ka Lafz Aata Hai Iss Se Murad Ijtemayat Hai, Lekin Kuch Log Isko Apni Makhsus Taraf Ishara Karte Hai Ke – “Iss Sey Muraad Hum Hai” Ya Iss Se Muraad Aksariyat Aur Akliyat Hai, Ya Falah Aur Falah Hai .. Yaad Rakhiye Jab Bhi Hum Quraan Aur Hadees Ki Roshni Me Haq Aur Baatil Ka Mu’tala Kartey Hai Tou Haq Humesha Aqliyat Me Hi Raha Hai, Thoda Hi Raha Hai. Tou Goya Aksariyat Aur Aqliyat Ka Koi Taqaza Nahi Shariyat Me .. Aur Haa! Haq Haq Hai Fir Chahe Puri Duniya Usey Maaney Ya Uski Mukhalifat Karey .. Tou Kisi Ek Jamaat Se Judna Matlab Musalmano Ki Jamat, Musalmano Se Judna. Kat Ke Nahi Rehna ! Warna Rasool’Allah (Sallallahu Alaihay Wasallam) Farmatey Hai “Shaitan Ke Liye Aasan Hai Uchak Lena” Aur Jitne Bhi Jamate Banti Hai, Tamam Ke Chand Makasid Hai, Aur Unn Makasid Ke Tahat Wo Kaam Karti Hai, Aur Ye Bhi Durust Hai Ismey Koi Harz Nahi,.. Koi Ye Na Kahey Ke Sirf Ek Hi Jamaat Hona Chahiye. Ye Jaruri Nahi Hai, Kyunki Itni Badi Ummat Hai Ke Namumkin Hai Ke Ek Hi Jamat Ek Hi Tanjim Kaam Karey,. Tou Mukhtalif Jamate Mukhatalif Tanjime Kaam Kare, Aur Har Jamate Har Tanjim Ek Dusre Ke Liye Dhaagey Ka Kaam Karey Jis Tarah Har Dhaga Dusre Dhagey Ko Majbuti Dekar Ek Kapda Banata Hai .. Tou Har Jamat Aur Har Tanjim Jodey.. Lekin Masla Yaha Ho Jata Hai Ke – Jab Hum Kisi Se Judtey Hai Hum Todne Lag Jatey Hai … Ek Aam Aadmi Jo Kisi Jamaat Me Na Tha Tou Sabse Acche Tallukat Rakhta Tha,. Lekin Jab Wo Kisi Jamat Se Jud Gaya. Tab Dusre Jamat Walo Se Tassuf Rakhne Laga …. Jo Ki Bohot Hi Galat Hai.. Har Shaksh Apne Karkartagi Ko Apne Mansubo Ko Janey – “Ke Mera Kaam Hai Logo Ko Masjido Se Jodna, Iske Baad Mai Kisi Aur Ke Hawale Kar Du, Ab Aap Yaha Se Usko Aur Aagey Ka Bataye.. ” Tou Har Jamat Ek Dusre Ki Madad Kare, Aur Har Tanjim Ek Dusre Ki Madad Karke Ek Jabardast Nizam Banaye.. Lekin Humare Paas Tod-Tukdo Ka Muamla Ho Gaya.. Ab Aayiye Giney Chuney Thodey Se Musalman Hai Jo Deen Par Chal Rahe, Puri Tadad Agar Le Ley Tou Bohot Badi Hai Musalmano Ki, Inme Se Bohot Thodey Log Hai Jo Kisi Na Kisi Tanjim Se Judey Hai ?? Aur Unme Bhi Itna Kaseer Jhagda Chal Raha Hai Ke Jiski Koi Inteha Nahi.. Subhan’Allah … # Andaza Lagaye Ke Agar Mumbai Me Musalmano Ki Abadi 5 Laakh Hai Tou Unmey Se Kariban 50,000 Log Judey Honge Kisi Na Kisi Jamaat-Tanjim Se. Baaki Tou Waise Hi Hai .. Tou Unko Lana Chorkar Yeh Aapas Me 50,000 Ladh Rahey Hai.. Jo Baaki 450000 Hai Unko Jamaat Aur Tanjimo Se Jodney Ke Bajaye Hum Aapas Me Hi Ladhne Lagey ,.. Chalo Wo Deen Ke Kisi Bhi Tanjim Se Judega, Allah Deen Ki Tadap Dega Tou Kabhi Na Kabhi Haq Par Aajeyga,. Agar Aap Samjhtey Ho Ke Mai Haq Par Hu Tou Wo Haq Par Aajeyga Mere Paas .. Lekin Humare Yaha Bhi Iss Mu’amle Me Bohot Hujjat Hoti Hai.. Ke Mai Haq Par Hu Tou Mere Paas Hi Aana … Yaa Tou 50,001 Hona Tou Mere Paas Aana Ya Baahar Hi Rehna,.. Subhan’Allah … ♥ Allah Rabbul Izzat Quraan Me Farmata Hai – “Tamam Musalman Aapas Me Bhai Bhai Hai Tou Apne Do Bhaiyyon Me Sulah Kara Diya Karo Aur Allah Se Darte Raho Taaki Tum Per Rahem Kiya Jaye. – Al-Quraan 49:10” – @[156344474474186:] Lekin Afsos Humara Tou Aapas Me Jhagda Chal Raha Hai .. Allah Le Liye Baat Ko Samjhey, Kaam Ko Samjhe, Haalat Aur Mouke Ki Nazakat Ko Samjhey.. Log Chah Rahe Hai Ke Hum Alag Ho Aur Hum Wakay Me Harkatey Kar Ke Bata Rahe Hai Ke Hum Alag Hai.. » Sabaq: Overall Apne Momin Bhaiyon Se Judney Ki Koshsih Karey .. Ek Rab, Ek Nabi, Ek Kitab, Ek Ummat Tou Yakinan Tarje Amal Bhi Ek Ho. Aur Purey Dil Se Bhi Ek Ho Iss Tarha Se Hum Jahir Karey .. Tou Aisi Bohot Si Jamate Hai, Tanjime Hai, Aur Hona Chahiye. Taaki Kaam Aur Jyada Se Jyada Badhey.. Aur Insaniyat Ko Fayda Pohchey .. Lekin Agar Koi Iss Niyat Se Idara Kholta Hai Ke Mai Falah Se Ikhtelaf Karu, Tou Unki Niyato Me Ikhlas Nahi Aur Allah Rabbul Izzat Aise Logon Ko Badi Sakht Saza Deta Hai Jo Apni Niyato Me Ikhlas Nahi Rahktey.. Aakhir Me Allah Rabbul Izzat Se Dua